'मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त करने के चार साधन'-विषयक

लेख के अंतिम अनुच्छेद पर किये गये

 

प्रश्नों का उत्तर

 

  जो भी प्रश्र किये गये हैं बे सब इस एक हीं प्रश्र मे ढालें जा सकते हैं : वह कौन- सा ज्ञान है या अनुशासन है जो निर्भयतापूर्वक मृत्यु का सामना करने की सामर्थ्य प्रदान करता है?

 

  अभी तक यहां ज्ञान की इस प्रणाली के विषय मे, जो साथ-हीं-साथ कार्य की प्रणाली भी है , कुछ नहीं कहा गया है, क्योंकि इस ज्ञान का अध्ययन तथा अभ्यास सबके हाथों मे नहीं सौंपा जा सकता । गुह्य शक्तियों के बारे मे बात करने का अधिक मूल्य नहीं है; मनुष्य को उन्हैं अनुभव मे लाना चाहिये । और यह अनुभव केवल उन क्षमताओं की ही मांग नहीं करता जो केवल बहुत क्रम लोगों को प्राप्त हैं, वरन उस मनोवैज्ञानिक विकास की भी मांग करता है जिसे बहुत कम लोग प्राप्त कर सकते हैं । आधुनिक जगत् मे यह ज्ञान कदाचित् ही वैज्ञर्ग़नेक माना जाता हैं, फिर भी यह वैज्ञानिक है , क्योंकि यह उन सब शर्तों को पूरा करता है जो सामान्यत: विज्ञान मे आवश्यक मानी जाती हैं । यह ज्ञान की एक ऐसी पद्धति है जो कुछ सद्धांतों के अनुसार व्यवस्थित की गयी है; यह कुछ यथार्थ क्रियाओं का अनुसरण करती हैं और व्यक्ति समान अवस्थाओं मे समान हीं परिणाम प्राप्त करता है । साथ ही, यह एक विकसन शील ज्ञान है । मनुष्य इसके अध्ययन मे जुट सकता है और इसे नियमित और युक्तिपूर्ण ढंग से विकसित भी कर सकता है , बिलकुल उन दूसरे विज्ञानों की तरह, जिन्हें आज का संसार विज्ञान मानता ३ । केवल एक भेद ३ कि यह अध्ययन उन वास्तविकताओं के साध संबंध रखता है जो अत्यधिक भौतिक संसार की वस्तुएं नहीं हैं । यदि तुम यह ज्ञान सीखना चाहते हो तो तुम्हारे पास विशेष इंद्रियें होनी चाहिये । क्योंकि इसके क्षेत्र साधारण इंद्रियों से परे हैं । ये विशेष इंद्रियां मनुष्य के अंदर सुप्तावस्था मे विद्यमान हैं । जिस प्रकार हमारा एक भौतिक शरीर है, उसी प्रकार अन्य सूक्ष्मतर शरीर भी हैं और इनकी भी अपनी इंद्रियां हैं; ये इंद्रियां हमारी भौतिक इंद्रियों से कहीं अधिक सूक्ष्म, यथार्थ तथा शक्तिशाली हैं । क्योंकि हमारी शिक्षा इस क्षेत्र के साथ संबंध रखने की अभ्यस्त नहीं है , स्वभावत: हीं ये इंद्रियां साधारणतया विकसित नहीं होती और जिन जगतों मे ये कार्य करती हैं वे हमारी सामान्य चेतना की पहुंच से परे हैं । पर बच्चे, सहज-स्वाभाविक रूप मे हीं, अधिकतर इसी जगत् मे निवास करते हैं, वे वहां उन सब प्रकार की वस्तुओं की देखते हैं जो उनके लिये भौतिक वस्तुओं के समान हीं वास्तविक हैं; वे उनके विषय मै बातें भी करते हैं, किंतु उनसे प्रायः यहीं कहा जाता है कि वे मूर्ख अथवा झूठे हैं, कारण, वे उन विषयों के

 


बारे मे बातें करते हैं जिनका दूसरों को कुछ अनुभव नहीं, पर जो उनके अपने लिये उतने ही सच्चे, गोचर और वास्तविक हैं जितनी कोई और चीज जिसे सब देख सकते हैं । बच्चे, सोते या जागते हुए जो स्वप्न देखते हैं वे भी बड़े सजीव होते हैं और उनके जीवन के लिये अत्यंत महत्त्व रखते हैं । अत्यधिक मानसिक विकास के बाद हीं ये शक्तियां बच्चों मे मंद पंडू जाती हैं तथा कभी-कभी विलीन होकर समाप्त भी हो जाती हैं । फिर भी कुछ ऐसे सौभाग्यशाली लोग भी हैं जो सहज रूप मे विकसित आंतरिक इंद्रियों के साथ हीं जन्म हैं, और इस बात का कोई कारण नहीं कि ये इंद्रियां जाग्रत् न रहें या विकसित न हों । यदि उन लोगों की, ठीक समय पर, किसी ऐसे मनुष्य के साथ भेंट हो जाये जिसे यह ज्ञान प्राप्त है और जो उनकी सूक्ष्म इंद्रियों की विधिवत् शिक्षा मे उन्हें सहायता पहुंचा सके, तो बे गुह्य जगतों के अध्ययन और खोजों के लिये रोचक यंत्र बन सकते हैं ।

 

   सभी युगों मे, पृथ्वी पर कुछ ऐसे इक्के-दुक्के व्यक्ति या छोटे समुदाय हुए हैं जो अति प्राचीन परंपरा के रक्षक थे तथा जिन्हेंने अपने अनुभवों द्वारा उस परंपरा की पुष्टि की थीं; ये इस प्रकार के विज्ञान का अभ्यास भी किया करते थे । वे ऐसी आत्माओं को खोजते थे जिन्हें विशेष रूप से यह शक्ति प्राप्त हो, और उन्हें आवश्यक शिक्षा देते थे । साधारणतया ये समुदाय थोड़ा-बहुत गुप्त या रहस्यमय जीवन व्यतीत करते थे, क्योंकि साधारण लोग इस प्रकार की क्षमताओं और क्रियाओं के प्रति बहुत असहिष्णु होते हैं, ये उनकी बुद्धि से परे की चीजें होती हैं तथा उन्हें भयभीत कर देती हैं । तब भी मानव इतिहास मे ऐसे महान् युग हुए हैं जब इस विद्या की दीक्षा देनेवाली संस्थाएं स्थापित हुई और उन्हें मान्यता भी मिली; लोग उन्हें उपयोगी समझते तथा उनका मान करते थे । इस प्रकार की संस्थाएं प्राचीन मिस्री देश, प्राचीन कुल्हिया और भारतवर्ष मै तथा आशिक रूप मे यूनान और रोग मे भी थीं; मध्यकालीन यूरोप मे गिर ऐसे विद्यालय थे जो गुह्यविद्या की शिक्षा देते थे; किंतु इन्हें बड़ी सावधानी सें अपने- आपको गुप्त रखना पड़ता था, क्योंकि ईसाई धर्म, जो कि राजधर्म था, इनका पीछा करता तथा इन्हें दंडित करता था । और यदि दुर्भाग्यवश यह पता लग जाता कि कोई खो या पुरुष इस गुह्यविद्या का अभ्यास करता है तो वह चिता पर चढ़ा दिया जाता था और उसे जादूगर समझकर जीवित जला दिया जाता था । अब यह ज्ञान लुप्तप्राय हो गया है; बहुत ही कम लोग अब इस विद्या को जानते हैं । किंतु ज्ञान के साथ- साथ, असहिष्णुता भी चली गयी है । यह सत्य है कि हमारे समय मे अधिकतर शिक्षित लोग इस विद्या को स्वीकार करना नहीं चाहते या इसे कोरी कल्पना कहकर दबा देते हैं, यहांतक कि, इसे ढोंग समह्मते हैं, ताकि बे अपने अज्ञान और अपनी उस व्याकुलता को अपने से छुपा सकें जो ३ अनुभव करते यदि उन्हें एक ऐसी शक्ति की वास्तविकता को स्वीकार करना पड़ता जिसके ऊपर उनका कोई वश नहीं है। साथ ही उन लोगों मे भी जो उसे अस्वीकार नहीं करते, अधिकतर को ऐसी चीजों से कोई

 

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विशेष प्रेम नहीं होता; ये उन्हें उलझन और चिंता मे डाल देती हैं । किंतु अंत मे उन्हें यह मानना पड़ा कि यह कोई अपराध नहीं है। जो लोग गुह्यविद्या का अभ्यास करते हैं वे अब चिता पर नहीं चढ़ाये जाते और न हीं बंदीगृह मे डाले जाते हैं । केवल एक बात हैं कि अब, चूंकि छुपाने की आवश्यकता नहीं रही, बहुत-से लोग दावा करने लगे हैं इकी यह सान उन्हें प्राप्त है , किंतु ऐसे बहुत कम लोग हैं जो इसे सचमुच जानते हों । उस रहस्य से लाभ उठाकर, जो पहले गुह्यविद्या को आच्छादित किये हुए था, कुछ महत्त्वकांक्षी लोग, जिन्हें सत्य असत्य की कोई चिंता नहीं होती, रहस्य- रण और ठगी के साधन के रूप मे इसका प्रयोग करने लगे हैं । किंतु उन्हें देखकर ही इस विद्या के विषय मे अपना विचार बना लेना उचित नहीं, क्योंकि है तो इसे जानने का झूठा दावा करते हैं । मानव कार्य-व्यवहार के सभी क्षेत्रों में नीम-हकीम तथा ठग विद्यमान हैं; किंतु उनके पाखंड को एक ऐसी सच्ची विद्या पर लांछन नहीं लगाना चाहिये जिसके प्राप्त होने का वे झूठा अभिमान करते हैं । इसी कारण, इस विद्या की उन्नति के महान् युगों मे, जब ऐसे विद्यालय विद्यमान थे और जहां इसका अभ्यास होता था, जो कोई इस विद्या को सीखना चाहता था उसे प्रविष्ट होने से पहले बहुत लंबे समय तक, कमी-कभी तो वर्षों तक, अत्यंत कठोर, दोहरे अनुशासन, अर्थात् आत्म-विकास तथा आत्म-संयम का अनुसरण करना पड़ता था । एक ओर तो अभीक्ष्ण के आशयों की सच्चाई तथा निःस्वार्थता, उसके उद्देश्यों की पवित्रता, आत्म- विस्मृति और अहनिषेध की उसकी योग्यता, त्याग की भावना तथा निरहंकारता के संबंध मे यथासंभव निक्षय प्राप्त किया जाता था, - इस प्रकार उसकी अभीप्सा की उच्चता तथा श्रेष्ठता प्रमाणित हो जाती थी, - और दूसरी ओर प्रार्थी को कई परीक्षाएं मे से गुजरना पड़ता था जिसका उद्देश्य यह शिक्षित करना होता था कि क्या उसकी क्षमताओं पर्याप्त हैं और वह उस विद्या का अभ्यास, जिसके लिये वह अपने-आपको समर्पित करना चाहता हैं, बिना किसी खतरे के कर सकता है? ये परीक्षाएं विशेषतया व्यक्ति की लालसा और कामनाओं पर संयम, एक अचल शांति की स्थापना और सबसे बढ़कर पूर्ण निर्भयता पर आग्रह करती थीं, क्योंकि इस कार्य मे पूर्ण निर्भयता सुरक्षा की आवश्यक शर्त हैं।

 

   गुह्यविद्या, अपने एक पक्ष मे, एक प्रकार की रसायनविद्या है जो आंतरिक विस्तार में शक्तियों की क्रीड़ा तथा जगतों एवं वैयक्तिक आकारों की रचना में प्रयुक्त की जाती हैं । और जिस प्रकार भौतिक रसायनविद्या मे विशेष पदार्थ का व्यवहार खतरे से खाली नहीं हैं, उसी प्रकार गुह्य जगतों में भी कुछ विशेष शक्तियों का प्रयोग करने तथा उनसे संपर्क रखने मे खतरा है, यह तभी अहानिकर हों सकता हैं जब व्यक्ति शांत और अविचल रह सके ।

 

   एक अन्य पक्ष से देखें तो गुह्य विद्या एक अन्वेषक के लिये अज्ञात प्रदेशों की खोज तथा अनुसंधान के समान हैं जिनके नियम तथा विधि-विधान वह प्रायः कष्ट

 

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उठाकर ही सीखता हैं । कुछ प्रदेश तो नये जिज्ञासु के लिये काफी भयावह भी होते हैं, वह अपने-आपको नये और अदृष्ट संकटों से घिरा पाता हैं । फिर भी, उनमें से अधिकतर संकट उतने सत्य नहीं हैं जितने काल्पनिक, और जो लोग उनका सामना निडरता से करते हैं उनके लिये ३ अपनी अधिकांश वास्तविकता खो देते हैं ।

 

  प्रत्येक अवस्था मे, सभी युगों मे, यह परामर्श दिया जाता रहा हैं कि किसी ऐसे गुरु से शिक्षा लेनी चाहिये जो अनुसरणीय पथ दिखा सके, संकटों से सावधान कर सके, चाहे वे काल्पनिक हों या नहीं, और समय पडूने पर रक्षा कर सके ।

 

  इसलिये यहां इस विद्या की कुछ और बारीकियों के विषय में कहना कठिन है, सिवाय इसके कि गुह्यविद्या के अध्ययन का अनिवार्य आधार सत्ता की अनेक अवस्थाओं तथा आंतरिक जगतों के मूर्त एवं गोचर सत्य की स्वीकृति है, जो चार या अनेक आयामोंवाले व्योमों के सिद्धांत का मनोवैज्ञानिक प्रयोग है ।

 

  इस प्रकार गुह्यविद्या की परिभाषा यों की जा सकती हैं : यह विद्या, आकारों के जगत् मे, उस चीज का मूर्त विषयीकरण हैं जिसकी शिक्षा आध्यात्मिक अनुशासन शुद्ध मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण सें देते हैं । इन दोनों को, विकास और समग्र कर्म की पूर्णता के लिये, एक-दूसरे का पूरक होना चाहिये । आध्यात्मिक अनुशासन के बिना गुह्य ज्ञान एक ऐसा उपकरण हैं जो यदि अपवित्र हाथों मे पंडू जाये तो उस व्यक्ति के लिये जौ उसे प्रयोग मे लाता हैं तथा अन्यों के लिये भी संकटपूर्ण हों जाता हैं । उधर गुह्यविद्या के बिना आध्यात्मिक ज्ञान के बाह्य प्रभावों मे यथार्थता और निश्चितता का अभाव रहता है; यह केवल आत्मनिष्ठ जगत् मे हीं सर्वशक्तिमान है । ये दोनों जब कर्म मे, चाहे वह आंतरिक हो या बाह्य, संयुक्तता हो जाते हैं, तो अदम्य हो जाते हैं और अतिमानसिक शक्ति की अभिव्यक्ति के योग्य यंत्र बन जाते हैं ।

 

('बुलेटिन', अप्रैल १९५४)

 

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